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संघ में ध्वज और प्रार्थना से कैसे जुड़े.


संघ में ध्वज और प्रार्थना कैसे जुड़े......?

 धमतरी छत्तीसगढ़-#Hindutvatv @pushpendra साहू -मोहिते संघ स्थान पर शाखा के कार्यक्रम शुरू होने के बाद अपना ध्वज कौनसा रहे और कार्यक्रम के अंत में प्रार्थना कौनसी रहे, इस विषय में भी अनौपचारिक बातचीत शुरू हुई। इस सम्बन्ध में हरेक स्वयंसेवक से कहा गया कि वे खुले मन से अपने विचार व्यक्त करें। पहले ध्वज के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किये जांये ऐसा डॉक्टरजी ने सूचित किया। एक स्वयंसेवक ने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि हमारे देश के राष्ट्रीय जीवन में हिंदुधर्म व हिन्दु संस्कृति का आधार ही केन्द्र बिन्दु के रूप में प्रमुख विषय है। मठ-मंदिरों के कारण ही, भारत पर आज तक हुए अनेक आक्रमणों - आघातों से हम सुरक्षित रह सके हैं। उनमें समय समय पर किये जानेवाले उद्बोधनों के कारण ही हिन्दू समाज की अस्मिता कायम रह सकी है। इसलिये मठ-मंदिरों पर फडकने वाला लाल रंग का त्रिकोणी ध्वज हमारे लिये ठीक रहेगा । दूसरे स्वयंसेवक ने कहा - धर्म और संस्कृति के प्रति अभिमान के साथ ही हमने भारत को विश्व में अजेय बनने योग्य, बलशाली बनाने का भी बीडा उठाया है- इस कार्य में हम विजयी होंगे, ऐसी हमारी आकांक्षा भी है । विजय और यशस्विता का रंग धवल (शुभ्र) होने के कारण क्या शुभ्र - सफेद रंग का ध्वज हमारे लिये उपयुक्त नहीं रहेगा ? इस पर तीसरे स्वयंसेवक ने कहा कि महाराणा प्रताप को केसरिया रंग का ध्वज प्रिय था । साका और आत्मसमर्पण की तैयारी केसरिया वस्त्र धारण कर ही होती थी । अपने कार्य में देशधर्म के लिये सर्वस्व अर्पण का विचार प्रमुखता से रख जाता है । इस कारण केसरी रंग का ध्वज ही सभी दृष्टि से उपयोगी रहेगा । एक अन्य स्वयंसेवक ने भी इसी आशय का विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हिंदवी स्वराज्य की स्थापना के लिये किये गये प्रदीर्घ संघर्ष में सफलता प्राप्त करेने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज का स्फूर्ति-ध्वज जरीपटका था । उस समय ऊंचे लकडी के स्तम्भ पर बंधा हुआ लाल रंग का पटका तथा वैभव की आकांक्षा सूचित करने वाला जरीपट इस प्रकार जरीपटका यह स्वराज्य और समृद्धि का प्रतीक माना जाता था - वही जरीपटका हमारे लिये भी ठीक रहेगा । उस समय हुई अनौपचारिक चर्चा में व्यक्त कुछ प्रमुख विचारों का ही उल्लेख यहां किया है ।
डॉक्टरजी ने सबके विचार सुनने के बाद, सारे विचारों का समन्वय करते हुए कहा कि भारत में आज तक, निरपेक्ष देशभक्ति, शुद्ध शील चारित्र्य, त्याग सफलता व समर्पण भावना के प्रतीक के रूप में भगवा ध्वज ही रहा है। सूर्योदय के समय आकाश को दीप्तिमान करने वाला स्वर्ण-गैरिक रंग का यह भगवा ध्वज ही अपने राष्ट्र का विजय केतु रहा है। महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथी बने कृष्ण के रथ पर भी दो तिकोनों वाला भगवा ध्वज ही था । हमें भी वही परम्परागत भगवा ध्वज ही अपनाना चाहिये । शुद्ध स्नेह का प्रतीक लाल रंग, त्याग वृत्ति और शुद्धता का प्रतीक पीला रंग और यश- सफलता का सूचक शुभ्र धवल रंग- इन तीनों को एक साथ मिलाकर बना केसरिया अथवा भगवा ध्वज ही संघ कार्य के लिये सर्वथा योग्य रहेगा। वहां उपस्थित सभी स्वयंसेवकों ने डॉक्टरजी के इस विचार से अपनी सहमति व्यक्त की और तब से भगवा ध्वज लगा कर शाखा शुरू करने की पद्धति रूढ हुई ।

संघ की प्रार्थना भी इसी तरह स्वयंसेवकों से अनौपचारिक वार्तालाप से सुनिश्चित हुई। प्रार्थना ऐसी होनी चाहिये कि जिसमें अपने कार्य का वैचारिक अधिष्ठान, अपनी भावना और आकांक्षा संक्षेप में किन्तु स्पष्ट शब्दों में प्रकट होनी चाहिये । प्रार्थना की भाषा सरल और सब लोग आसानी से समझ सकें, ऐसी होनी चाहिये । इसी प्रकार सारे स्वयंसेवक उसे सामूहिक रूप से गा सकें, ऐसी उसकी तर्ज और स्वर होने चाहिये। उन दिनों अनेक व्यायाम शालाओं में तथा सार्वजनिक कार्यक्रमों में मराठी की एक प्रार्थना प्रचलित थी, जिसे अपनाने का सुझाव एक स्वयंसेवक ने दिया । उस प्रार्थना की प्रारंभिक और अंतिम पंक्तिया इस प्रकार की थीं -

“रक्ष रक्ष ईश्वरा भारता प्राचीना जन पदा ।

भोगीयली बहु जये एकदा वैभव सुख संपदा ॥”

और अंतिम दो पंक्तियां इस प्रकार की थीं -

“आर्यपुत्र जरी अपात्र असले ध्यायासी या पदा ।

रक्ष भारता सहाय हीना ईशा सुख संपदा ॥”

डॉक्टरजी ने इस प्रार्थना के सम्बन्ध में यह समझाने का प्रयास किया कि इसमें कहा गया है ‘स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिये हम अपात्र हैं। भारत असहाय है। अब तू ही हमारी रक्षा कर ।' - इस प्रकार इसमें निराशा के भाव हैं। डॉक्टरजी ने कहा, यदि आज हम भले ही अपात्र हों किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये हम योग्य और सत्पात्र हैं, यह विश्वास हरेक के मन में उत्पन्न करना होगा । यदि हम अयोग्य हैं तो फिर भला ईश्वर भी हमारी सहायता के लिये क्यों आयेगा ? हम अगर सत्पात्र नहीं है तो वह हम पर कृपा क्यों करेगा? वैसे भी इस प्रार्थना में निराशा के भाव हैं । निराशा उत्पन्न करने वाली प्रार्थना से कार्य की प्रेरणा नहीं मिलेगी। सभी स्वयंसेवक डॉक्टरजी के मत से सहमत हुए ।

एक अन्य स्वयंसेवक ने कहा, हमारे कार्य में मातृभूमि की विशुद्ध भक्ति अपेक्षित है अतः हमारी प्रार्थना में, भारत माता सम्बन्धी सारी श्रद्धा व अपनी निष्ठा हम मातृभूमि के चरणों में समर्पित करते हैं, ऐसा भाव व्यक्त होना चाहिये। इस दृष्टि से “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।” को प्रार्थना में शामिल किया जाये। एक अन्य स्वयंसेवक ने कहा, 'भारत माता की जय' कहने से भी यह भाव सरल किंतु प्रभावी ढंग से व्यक्त होता है। मातृभूमि की वंदना का एक मराठी श्लोक उन दिनों प्रचलित था उसके भाव अच्छे होने से डॉक्टरजी सहित सभी ने उस पर अपनी स्वीकृती दर्शायी । वह श्लोक था

नमो मातृभूमि जिथे जन्मलो मी ।

नमो आर्यभूमि जिथे वाढलो मी |

नमो धर्मभूमि जियेच्याच कामी ।

पडो देह माझा सदा ती नमी मी ॥

एक स्वयंसेवक ने यह भी सुझाया कि हम स्वयंसेवकों में जिन गुणों को विकसित करना चाहते हैं, उसका भी दर्शन प्रार्थना में होना चाहिये। अपने दुर्गुण नष्ट होने चाहिये - यह बात भी उसमें शामिल हो । इन गुणों की सूची तो बडी लंबी हो सकती इसलिये इन समस्त गुणों से युक्त हनुमानजी जैसे आदर्श व्यक्ति की तरह हमें बनना है - इस आशय का एक श्लोक, जो हिंदी भाषा में था, एक स्वयंसेवक ने सुझाया । वह श्लोक इस प्रकार का था. -

"हे गुरो श्री रामदूता, शील हमको दीजिये। 
शीघ्र सारे दुर्गुणों से मुक्त हमको कीजिये । 
लीजिये हमको शरण में राम पंथी हम बनें । 
ब्रम्हचारी धर्म रक्षक वीरव्रतधारी बनें ।

इस श्लोक के भाव सभी स्वयंसेवकों को भाये। वैसे भी यह श्लोक सरल हिंदी में होने के कारण मराठी भाषी भी इसे आसानी से समझ सकेंगे । अपना कार्य आज भले ही मराठी भाषी क्षेत्र में हो, किंतु आगे चलकर वह सारे भारत में फैलेगा। इसलिये यह हिंदी भाषी श्लोक सभी स्वयंसेवकों को उचित प्रतीत हुआ ।

पू. डॉक्टरजी ने कहा यह कविता उत्तम है किंतु इसमें एक दोष है, जो हमारे ध्यान मेंआना चाहिये । इसमें यह जो पंक्ति है 'हमें दुर्गुणों से मुक्त कीजिये' - इसमें दुर्गुणों से मुक्ति की अभावात्मक भावना व्यक्त होती है और इसे दुहराते समय दुर्गुणों संबंधी विचार ही मन में बना रहता है। यदि हम इस पंक्ति के स्थान पर यह कहें- 'सद्गुणों से पूर्ण हिंदू कीजिये' तो यह शब्द योजना अपने कार्य और स्वयंसेवकों के लिये अधिक उपयोगी सिद्ध होगी। हनुमानजी आदर्श स्वयंसेवक थे साथ ही हिंदू जीवन पद्धति के भी आदर्श होने के नाते यह आदर्श समाज के सामने रहना आवश्यक है। इसलिये यह प्रार्थना ठीक रहेगी। डॉक्टरजी की बात सबको जंच गयी।

संघ के कार्य का स्वरूप समर्थ रामदास स्वामी द्वारा उनके कालखंड में किये गये संगठन कार्य की भांति होने के कारण उनका नाम भी स्वयंसेवकों के सामने नित्य रहना चाहिये । निकट भूतकाल के राष्ट्रगुरू के रूप में सर्वत्र विशेषतया महाराष्ट्र की जनता में उनके प्रति आदर भाव है। ‘दासबोध' में व्यक्त उनके विचार संघ कार्य में स्वयंसेवकों के लिये मार्गदर्शक हैं। अंतः प्रार्थना के बाद स्वयंसेवक समर्थ रामदास स्वामी को अभिवादन करें। एक स्वयंसेवक का यह सुझाव भी सबने स्वीकार किया । जब तक संघ का कार्य मराठी भाषी प्रांत में है, तब तक समर्थ रामदास स्वामी के विचार सभी के लिये प्रेरक सिद्ध होगे । जब संघ का कार्य महाराष्ट्र से बाहर अन्य प्रांतों में फैलेगा तब राष्ट्र गुरू के नाते योग्य ऐसे गुरू गोविंदसिंह जैसे नाम भी सामने आयेंगे - उनका भी विचार आगे चल कर किया जायेगा। फिलहाल राष्ट्र गुरू के नाते समर्थ रामदास का उल्लेख करने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिये यह सोचकर उक्त सुझाव स्वीकार कर लिया गया। इस कारण संघ के प्रारंभिक कालमें भारत माता व समर्थ रामदास स्वामी की जय जय कार के साथ प्रार्थना के श्लोकों का निम्नलिखित क्रम निश्चित हुआ - 

नमो मातृभूमि जिथे जन्मलो मी । 
नमो आर्यभूमी जिथे वाढलो मी । 
नमो धर्मभूमि जिये च्याच कामी । 
पडो देह माझा सदा ती नमी मी ॥१॥ 

हे गुरो श्री रामदूता शील हमको दीजिये । 
शीघ्र सारे सदगुणों से पूर्ण हिंदू कीजिये | 
लीजिये हमको शरण में रामपंथी हम बने । 
ब्रम्हचारी धर्म रक्षक वीरव्रतधारी बने ॥२॥

। भारत माता की जय ।
॥ 'राष्ट्रगुरू' श्री समर्थ रामदास स्वामी महाराज की जय' ॥ 

ध्वज तथा प्रार्थना संबंधी विचार करते समय आज मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि इन मूलभूत विषयों के संबंध में इस प्रकार स्वयंसेवकों के साथ अनौपचारिक वार्तालाप द्वारा निर्णय लिया जाना क्या आवश्यक था? संघ कार्य की मूल धारणा, बुनियादी विचार, आकांक्षा व घोषणा की पूर्ण कल्पना डॉक्टरजी को थी। इस संकल्पना को शामिल कर संस्कृत के किसी जानकार व्यक्ति के द्वारा संस्कृत में प्रार्थना तैयार करवाना सहज संभव था । वे यह भी जानते थे आगे चलकर जब संघ कार्य देशव्यापी होगा जब संस्कृत भाषा में प्रार्थना आवश्यक हो जायेगी। किंतु सारे स्वयंसेवकों के साथ विचार विमर्श कर, उनकी सहमति से निर्णय लेने की कार्यशैली संघ में विकसित करने की डॉक्टरजी की योजना थी। सामूहिक चिंतन से यथा संभव हरेक निर्णय लेने से, उस निर्णय में अपनी सहभागिता के कारण उसे क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी भावना भी विकसित होती है - यह भावना स्वयंसेवकों में उत्पन्न हो सके, ऐसी कार्यशैली डॉक्टरजी ने प्रारंभ से ही अपनायी और स्वयंसेवकों में भी उसकी आदत डाली।

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                     - संघ कार्य पद्धति का क्रमिक विकास

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